टंग-ट्विस्टर

'टंग -ट्विस्टर' अर्थात् सीधे-सीधे शब्दों में समझा जाए तो इसका अर्थ जिह्वा/ जीभ भाँजना -घुमाना -मरोड़ना है।  और अधिक  सरलता से  इसे परिभाषित किया जाए तो  इसे 'जिह्वा का  लयात्मक व्यायाम' कहना उपयुक्त होगा , ऐसा व्यायाम जो जिह्वा के माध्यम से उत्पन्न होने वाले शब्द- ध्वनि को अत्यंत सुस्पष्ट- शुद्ध -ग्राह्य -प्रभावी और चमत्कारी बनाता है । 
बहुत कम लोग हैं जो इसकेशारीरिक- वैज्ञानिक महत्त्व के साथ इसका शास्त्रीय महत्त्व भी जानते हैं । काव्यप्रकाश रचयिता आचार्य मम्मट काव्य भेद  को स्पष्ट करते हुए 'चित्र काव्य'  की व्याख्या करते हैं। चित्र काव्य को काव्य का तीसरा भेद भी कहा गया है । आचार्य मम्मट कहते हैं कि व्यंग्य और अर्थ से रहित शब्दों का अनुप्रास जन्य चमत्कार ही चित्र काव्य है । इस काव्य में शब्द सौंदर्य तो होता है, किंतु यह काव्यतत्त्व से विहीन होने के कारण अधम कोटि का काव्य माना गया है । उदाहरण स्वरूप(हिंदी में)  "चार चोर  चार छाते में चार चार अचार चाटे चाट चाट कर छाता चुराकर भागे" प्रथम दृष्टया यह अनुप्रास है। आचार्य रामचंद्र वर्मा ने इसे 'वर्ण मैत्री' और 'वर्ण वृत्ति भी कहा है । यद्यपि यह अधम कोटि  का काव्य माना गया है ,लेकिन विद्वान यह भी मानते हैं कि आनुप्रासिक  ध्वनि के माध्यम से शब्द चमत्कार, सौंदर्य और हास्य उत्पन्न होता है । इसी कारण इस 'चित्र काव्य' को' विचित्र काव्य' कहना अधिक उपयुक्त होगा । यहॉं प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जिसमें विचित्रता नहीं, वह शब्दावली -स्थिति अथवा परिस्थिति हास्य उत्पन्न नहीं कर सकती है और विचित्रता  भी यदि उदात्त हुई, प्रत्याशित हुई,थोड़ी श्रद्धावर्द्धक हुई  तो वह हास्य के किसी काम की नहीं  ।उसमें तो विकृति चाहिए,बेतुकापन  चाहिए ।यह टंग ट्विस्टर अर्थात्  चित्र काव्य अर्थात् विचित्र काव्य की मूल आवश्यकता है । चित्रकाव्य सृजन के लिए बेतुकी कल्पनाओं के साथ उसी के अनुरूप शब्द प्रयोग का सामर्थ्य भी चाहिए । यह उल्लेखनीय है कि हास्य के कारक तत्वों में ध्वनि भी सम्मिलित है अर्थात्  ध्वनि के माध्यम से भी हास्य  उत्पन्न किया  किया जाता है । 11 वीं शताब्दी के आचार्य आनंदवर्धन  ने 'ध्वनिवाद' को स्थापित किया। उसके महत्त्व को प्रतिपादित किया । स्वयं आचार्य मम्मट ने भी ध्वनि को महत्वपूर्ण माना ।
यद्यपि चित्र काव्य गद्य एवं पद्य में लिखा जा सकता है, लेकिन नए लेखकों को  चाहिए कि वे गद्य में ही इसका प्रयोग करें ताकि  वे छंद और मात्राओं के विधान में न उलझें और उसका प्रभाव और प्रवाह बाधित भी ना हो ।समकोटिक और समवर्णों का आनुप्रासिक  प्रयोग इसमें आवश्यक तत्त्व है । चित्र काव्य का सृजन मेधा वर्धक, एकाग्रता प्रदान करने वाला, चमत्कारी और शब्द प्रयोग में सामर्थ्यवान बनाता है ।

संजय झाला
www.sanjayjhala.com

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