शरद जोशी जी की जयंती (21 मई) के अवसर पर... हास्य-व्यंग्य का पहला 'शो-मैन'

शरद जोशी, अर्थात् मालवा के मध्यमवर्गीय परिवार का वह व्यक्ति ;जिसने साहित्यिक मान्यताओं में 'झोपड़पट्टी 'का दर्जा रखने वाली व्यंग्य विधा को साहित्य में 'व्हाइट हाउस' जैसी 'शक्ति 'बना दिया ।उन्होंने  होनोरे  डी बाल्ज़ाक ,सामरसेट,   टॉलस्टाय, 'ओ 'हेनरी, कृष्ण चंदर ,मंटो ,शरत्, रवींद्र आदि को जी भर के पढ़ा  । उन्होंने  ब्रह्मा की तरह नए पात्रों और  चरित्रों का निर्माण किया और उनसे मनचाही क्रीड़ा की ।  सृजन के लिए उन्हें जिस चीज़ की जरूरत  होती थी, वह थी; थोड़ी धूप ,ठंडी हवा, बढ़िया काग़ज़ और एक ऐसी कलम, जो बीच में ना रुके और साथ में एक -आधा कप चाय भी । यह एक कालजयी रचना की गारंटी थी  ।वे दरबारों  को दूर से  ही हाथ जोड़ते थे, और मौका आने पर दो-दो हाथ भी करते थे। एक फिनोमना होने के बावज़ूद उन्होंने एक आम आदमी का आदर्श जीवन चुना  ।वह आम आदमी; जो देश के सुख- दुख में बतौर नागरिक हिस्सेदारी करता है, रोटी कमाता है ,बच्चे पैदा करता है, लाइन में लगकर टिकट खरीदता है, हंसता है -हंसाता है ,यात्राएँ करता है और यह जानते हुए भी कि साहित्य कोई पढ़ता नहीं और अखबार पढ़ने लायक नहीं होता,  बावजूद भी  दोनों को सतत् पढ़ता है ।

शरद जी जीवन और लेखन में श्रीकृष्ण के अनुयायी प्रतीत होते हैं ।वे 'स्पृहाओं 'में 'नि:स्पृह' है। 'आसक्तियों 'में 'अनासक्त' हैं । 'युद्ध' मे 'बुद्ध' और 'सांसारिकता' में 'शुद्ध ','कथन 'में 'तर्क संगत','शोर 'में 'तटस्थ' ,'भावों 'में 'निकटस्थ 'की अनुभूति कराते हैं । वह लेखन में न्यायाधीश की तरह बिहेव करते हैं  ।तर्कों -कुतर्कों के बीच सदा और निष्पक्ष औरअनुकरणीय निर्णय सुनाते हैं । प्रख्यात लेखक -विश्लेषक अजातशत्रु उनके बारे में कहते हैं ,"डबल निगेशन जोशी को संतुलित करता है । उसे एक साथ पॉजिटिव नेगेटिव और तटस्थ दृष्टा बनाता है ।ऐसा परमात्मा जो' रैशनल' और ' इर्रेशनल ' संघर्ष को रचता है और स्वयं दुनिया के शोर से तटस्थ होकर अपनी शून्यता की समाधि में रमण करता है । यही कॉस्मिक ऑब्जेक्टिविटी है; जो सांसारिक द्वंदात्मकता को स्वीकारते हुए संतुलित पराविश्राम बनाती है ।

शरद जी का लेखन क्रोध ,उत्तेजना, घृणा तिलमिलाहट और पक्षपात विहीन है  ।किसी भी स्थिति में वे अपने लेखक के साथ न्याय के लिए प्रतिबद्ध हैं और यह न्यायिक प्रतिबद्धता तटस्थता -निष्पक्षता से ही प्राप्त होती है । उनका व्यंग्य लेखन हास्य प्रधान है और यह कहना प्रासंगिक होगा कि बिना हास्य के व्यंग्य गाली मात्र है । व्यंग्यकार की बौद्धिक प्रतिभा से ही हास्य उत्पन्न होता है । हास्य के लिए दूरदृष्टि -गूढ़ दर्शन, कलम -कला का लाघव और नैसर्गिकता की आवश्यकता होती है । बिना इन भावों के जीवन में हास्य की वही स्थिति-उपस्थिति वैसी ही है,जैसे "हास सदैव बसे मन माँहि, ताहि ढूंढ रहे जग माहिं ।

हास्य के संदर्भ में शरद जोशी का दृष्टिकोण 'हास्य रस की अफसोस शाखा 'में दृष्टिगत होता है । वो साली- भाभी पर लिखे फूहड़ हास्य का  घोर विरोध करते हैं ।
यह मज़ेदार है कि वह बिना संस्कृत के विशद् अध्ययन के  हास्य /प्रहसन  हेतु निम्न प्रतिपादित अंगों के माध्यम से चमत्कारिक और क्लासिकल हास्य उत्पन्न करते हैं  ।यह उनकी विलक्षण दृष्टि ही है।

नाट्य शास्त्र के अनुसार श्रेष्ठ हास्य /प्रहसन के लिए 'विथ्यांङ्गों '-'लास्यांङ्गो' का होना आवश्यक है। शरद जी के लेखन में वक्रोक्ति वैचित्र्य के साथ अवस्कन्द (गुण के विपरीत प्रशंसा करना),विप्रलंभ(आधार रहित कल्पना),उपपत्ति(प्रसिद्ध उक्ति से हास्य की निष्पत्ति),अनृत(मिथ्या स्तुति),विभ्रांति(वस्तु साम्य से उत्पन्न हास्य),नालिका(गूढ़ अर्थ से उत्पन्न उपहास),गंडम्(वाक्य के बीच अचानक हुई उपपत्ति) और असत्प्रलाप (मूर्ख के समक्ष हितकारी बातें करना)आदि सम्मिलित हैं । उनका हर आलेख पांडित्य पूर्ण है  ।उनके  हास्य-व्यंग्य में करुणा की  अन्तर्धारा और संवेदनाओं का विराट आकाश है ।उन जैसा लेखकीय   साहस- कौशल शायद ही अन्य किसी में देखने को मिले । 'परिक्रमा' से 'प्रतिदिन' तक उनके सृजन संसार को देखने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने लेखन के वो विषय चुने, जिन पर लिखने का साहस शायद ही कोई कर पाता है।

फिल्मी भाषा में कहूं तो शरद जोशी हास्य- व्यंग्य- प्रहसन के भारत के पहले 'शो-मैन' थे। शब्द, भाव, भाषा, स्थिति ,ध्वनि और अनुकृति के साथ दिव्य लेखन एवं  भव्य वाचिक प्रस्तुतिकरण  के ट्रेंडसेटर थे । उनके पास लेखन के दो अमोघ अस्त्र सदैव विद्यमान थे; नाटकीयताऔर किस्सागोई । नाट्य कर्म की गहरी समझ के कारण ही 1979 में उन्होंने दो कालजयी नाटक' एक था गधा उर्फ़ अलादाद खाँ और 'अंधों का हाथी 'हमें दिए । रंगकर्म की विश्लेषणीय क्षमता के कारण ही उन्होंने फिल्मों और दूरदर्शन के लिए अविस्मरणीय पटकथा और संवाद लिखें  । 'गोधूलि', 'छोटी सी बात', 'चोरनी' और 'उत्सव' जैसी क्लासिक फिल्मों की पटकथा और ' ये जो है ज़िंदगी',' विक्रम- बेताल', और 'वाह जनाब' जैसे लोकप्रिय धारावाहिक लिखें । 

यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि विश्व हास्य- व्यंग्य की निधि  में इतना विविधता पूर्ण लेखन शायद ही किसी के पास हो । डॉ. बालेंदु शेखर तिवारी का यह कथन इस आशय की पुष्टि करता है कि भाषा, शैलिकीय  उपकरणों का वैविध्य पूर्ण प्रयोग, संगोत्रीय विधाओं का आवाह्न, निबंध, कथा ,सूत्र, पत्र ,डायरी ,संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, साक्षात्कार ,पैरोडी या आंखों देखा हाल आदि शैलियों का सजग इस्तेमाल शायद ही किसी हास्य-व्यंग्यकार ने किया हो। क्योंकि उनका जन्म उज्जैन में हुआ है,महाकाल की कृपा से उनमें एक विलक्षण आत्मस्थ परमहंस भाव स्थायी रूप से था । यह शिव की ही तरह विरल है कि कोई अपनी शैली, भाषा एवं लिखे की पैरोडी करके उसका भी मख़ौल उड़ाये । मैं  उनको शिव के प्रमुख गण 'प्रमथ' की संज्ञा देना चाहूंगा, जो कि हास्य रस के देवता हैं ।यही कारण है कि उन्होंने  हास्य रूपी 'शिव' और व्यंग्य रूपी 'शक्ति' में  अनुकरणीय संतुलन  स्थापित किया ।

21 मई को उनकी जयंती पर उनके पुण्य स्मरण -प्रणाम सहित ।

संजय झाला

Comments

  1. शानदार संजय भाई

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार बड़े भाई

      Delete
    2. अतिसुंदर विष्लेषण।

      Delete
  2. Replies
    1. आभार विष्णु भैया

      Delete
  3. सटीक सारगर्भित विश्लेषण . उपमाओं से समृद्ध काव्यात्मक आलेख. बधाई.

    ReplyDelete
  4. वाह संजय। शरद जी पर बहुत ही सुंदर लेख लिखा है आपने। बहुत-बहुत शाबाशियां। उम्मीद करता हूं अगला लेख भी इतना ही रोचक होगा।

    ReplyDelete
    Replies
    1. दादा उम्मीद है,आगे भी आपका उत्साहवर्धन मिलता रहेगा:सादर

      Delete
  5. बहुत ही सुंदर और उत्कृष्ट लेख लिखा है आपने संजय जी। शरद जी तो महान और अतुल्य थे ही, उन पर लिखा आपका लेख भी अनुपम है और आपके परम ज्ञानी होने का प्रमाण देता है।
    शरद जी को श्रद्धांजलि।
    --- विश्वनाथ अय्यर, दोहा, कतर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय विश्वनाथ जी,आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धक है,आत्मीय आभार

      Delete
  6. TV चैनल पर एक धारावाहिक 'लापतागंज' में उनके नाम का बेजा इस्तेमाल किया गया है, इसपर टीका-टिप्पणी अपेक्षित है।
    - पंकज झा, गुवाहाटी

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रिय पंकज जी,जैसा कि मुझे ज्ञात है,इसकी प्रारंभिक लेखनी शरद जी की ही थी,जो कि सार्थक और रुचिकर थी,बाद में उनके नाम का उपयोग मात्र हुआ है....

      Delete
  7. बहुत ही सुंदर आलेख भैया। पढ़ कर मजा आ गया। बहुत ही शानदार।
    बधाई भैया।
    अंजीव अंजुम

    ReplyDelete
  8. वाह सर ... बहुत सुन्दर ... शुभकामनाएं

    ReplyDelete
  9. वाह संजय भाई , आलेख को पढ़ कर यूं लगा कि श्री शरद जोशी पर शोध ग्रंथ की प्रस्तुति को एक आलेख में समाहित कर दिया जाये । बधाई । तुम्हारी क़लम निरंतर यशस्वी बने ।👍👍🙏

    ReplyDelete
  10. वाह संजय भाई , आलेख को पढ़ कर यूं लगा कि श्री शरद जोशी पर शोध ग्रंथ की प्रस्तुति को एक आलेख में समाहित कर दिया जाये । बधाई । तुम्हारी क़लम निरंतर यशस्वी बने ।👍👍🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी शब्दशक्ति को प्रणाम सर्

      Delete
  11. 👌👌वाह! बहुत ही बेहतरीन 👌👌👌
    हमारे ब्लॉग पर भी आइएगा आपका स्वागत है🙏🙏

    ReplyDelete
  12. कितनी सुंदर सरल व्याख्या की है।धर्म विवाह और परिवार की जीवन भी एक लंबा स्वप्न है।ईश्वर दर्शन उसी को होते हैं जिसकी जिज्ञासा बड़ी है बेचैनी बड़ी है प्यास बड़ी है।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

वेद-शास्त्रों में हास्य

कवि-कविता और कवि सम्मेलन का इतिहास