नाट्यशास्त्र

18वीं शताब्दी में कलकत्ता में सर विलियम जोन्स मजिस्ट्रेट थे। उन्होंने किसी तरह संस्कृत पढ़ी और 1787 में शाकुन्तल का संपादन और अंग्रेजी अनुवाद का काम शुरु किया था। शाकुन्तल का छपना एक क्रांतिकारी घटना थी। सर विलियम जोन्स का अनुवाद जर्मनी में पहुंचा। उससे दुनिया की भारत के बारे में दृष्टि बदली और कला साहित्य और संस्कृति में बदलाव आया। इससे भारत को लेकर भारतवासियों की भी दृष्टि बदली। 

उन्होंने लिखा कि अगर उन्हें नाट्यशास्त्र की पुस्तक मिल जाती तो वो और अधिक बेहतर लिख सकते थे। तब दुनिया ने नाट्य शास्त्र को खोजना शुरू किया।

19वीं शताब्दी के मध्य तक तो अनुसंधानकर्ताओं को नाट्य शास्त्र अप्राप्त ही था। भारत भर से लगभग 40 पांडुलिपियों के आधार पर नाट्यशास्त्र का प्रामाणिक संस्करण चार खंडों में 1926-1964 के मध्य बड़ौदा से प्रकाशित हुआ। नाट्य विधा को एक नया आयाम मिला। 

भरत मुनि और नाट्यशास्त्र

नाट्यशास्त्र के रचयिता भरतमुनि हैं। उनके अनुसार संसार की कोई ऐसी कला, ज्ञान, शिल्प, विद्या, योग कर्म नहीं है, जो नाट्य शास्त्र का अंग न बन सके। नाट्य में असंख्य ज्ञान सागर समाहित हैं। नाट्य पंचम वेद है। नाट्य शास्त्र के प्रयोग से क्रोधित असुरों को समझाते हुए भगवान ब्रह्मा कहते हैं, कि नाट्य में तो तीनों लोकों के भावों का प्रस्तुतीकरण होता है। कहीं धर्म, कहीं क्रीड़ा, कहीं अर्थ, कहीं श्रम, कहीं हास्य, कहीं युद्ध कहीं काम तथा कहीं वध है। ये दुख से, थकावट से शोक पीड़ित दीन दुखियों को विश्राम देने वाला होगा। ये धर्म, यश, आयु और बुद्धि का संवर्धक होगा। नाट्य शास्त्र की तीन परंपराएं हैं। पहली पितामह ब्रह्मा की, दूसरी महेश्वर की और तीसरी स्वयं भरत मुनि की। नाट्यशास्त्र में पुरुषार्थ की अवधारणा गहराई से ओतप्रोत है। रस मात्र रंजन या आस्वाद नही है, पुरुषार्थ सिद्धि में उसकी परिणति अनिवार्यतः होनी चाहिए। इसलिए भरत मुनि ने शृंगार रस भी तीन प्रकार का बताया है। धर्म शृंगार,अर्थ शृंगार, काम शृंगार। आगे चलकर भोज ने इनमे मोक्ष शृंगार जोड़ा। धर्म के लिए तपश्चर्या अपेक्षित है, सुख के लिए धर्म अपेक्षित है और सुख का मूल स्त्री है। इस प्रकार धर्म का अभिभाज्य संबंध काम से है।

ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं, पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति। वैदिक विश्वबोध इस जगत को परमात्मा की रची कविता के रूप में देखता है।

नाट्यशास्त्र की अभिनय प्रविधि में ये चार स्तर कोटियों में बांट दिए गए हैं- देह, वाणी, मन, और बाहरी सामग्री। इन चारों स्तरों पर रहते हुए अभिनेता एक खोल बुन लेता है। ये खोल दृश्य, अदृश्य, स्थूल और सूक्ष्म भी हो सकते हैं।

इस खोल में रहकर अभिनेता जो करता है, वही रंगमंच है। अभिनेता और उसके द्वारा रच गया विश्व इसमे समाहित है।

संदर्भ: डॉ. राधा वल्लभ त्रिपाठी 

Comments

  1. वाह! साधु साधु ☺️

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  2. संजय भाई कमाल करते हो । समुद्र को बूँद में समेटने का कौशल है । बूँद में मिठास भी है ।

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