दुष्यंत ने ग़ज़ल को 'शस्त्र' और दीक्षित दनकौरी ने 'शास्त्र' बनाया


मैं ग़ज़ल शब्द के अर्थ, भाषा, उत्पत्ति,व्युत्पत्ति या निष्पत्ति के बारे में बता कर कोई पुनरावृति नहीं करूंगा अथवा ग़ज़ल में प्रेमी व प्रेमिका के मध्य प्रेम दशाओं में; अनुनय, विनय, मिलन, वियोग, जलन, पीड़ा, उपालंभ को भी विश्लेषित नहीं करूंगा । ग़ज़ल क्या दुनिया की कोई भी लेखन विधा हो, वह प्रेम की विधि -विधान, रूप -स्वरूप और प्रक्रिया से अछूती नहीं रही । प्रेम की इन दशाओं पर 'शास्त्र' लिखे गए और 'शस्त्र' चलाए गए । महाकवि दिनकर जी सही कहते हैं ," खोजता पुरुष सौंदर्य, त्रिया प्रतिभा को, नारी चरित्र बल  को, नर सिर्फ त्वचा को " इस 'चाम शास्त्र' ने ही हमें 'कामशास्त्र' दिया । कितना आश्चर्यजनक है  लोगों ने एक उम्र, एक युग, एक कालखंड महिलाओं- सौंदर्य और उनकी प्रेम- दशाओं के विश्लेषण करने में निकाल दी । इसके विपरीत किसी भी नारी ने दो लाइन लिखकर किसी भी 'नर' के सौंदर्य का वर्णन कर उसे 'नारायण' नहीं बनाया... अपितु 'नर'को 'वानर' बनाते हुए नियमित देख रहे हैं ।...अस्तु ।

प्रगतिवाद से पूर्व ग़ज़ल में भी लगभग यही हुआ । प्रगतिवाद के बाद गीतकारों-ग़ज़लकारों में आत्मावलोकन, आत्ममंथन, और आत्म संघर्ष का दौर प्रारंभ हुआ । कथित प्रेम के फ़रेब और बिंदिया ,चूड़ी पाज़ेब से निकलकर विशेष रूप से ग़ज़ल की नज़र ग़रीब की जेब पर पड़ी  । उस ज़ेब पर जिसकी तंगी से प्रेमिका का चांद सा गोल चेहरा गोल रोटियां दिखाई देने लगा । गीत हो या ग़ज़ल हो, अब उसने प्रेमिका से आंखों के व्यापार करने की अपेक्षा सामाजिक मूल्य, सरोकार पर बल दिया । प्रेम के फ़रेब का अंत करने की आधिकारिक घोषणा दुष्यंत ने की । हर ग़ज़ल को सल्तनत के नाम एक बयान बनाकर । नीरज ने भी लिखा," मैं चंचल पंथी चांदी के पथ का, जननी मेरी पूंजी वासवदत्ता, व्याभिचारी शोषण मेरा रसिक पिता, मैं रोटी का पति, बिन जिसके जग में, टुकड़ों पर बिकने  लगती है मानवता  ।.... और  हां.. प्रसंगवश कहना समीचीन है, नीरज ने ग़ज़ल को 'गीतिका' कहा । ग़ज़ल कहो या गीतिका,  काव्य की परिष्कृत विधा हैं । दुष्यंत ने ग़ज़ल को सल्तनत के खिलाफ एक 'शस्त्र' बनाया तो उसे 'शास्त्र' बनाने का बड़ा उपक्रम किया
दीक्षित दनकौरी ने । 
आचार्य मम्मट विरचित काव्यप्रकाश के व्याख्याकार आचार्य विश्वेश्वर सिद्धांत शिरोमणि कहते हैं कि वेदांत दर्शन में शास्त्र शब्द की एक और व्युत्पत्ति की गई है।   "शासनात शास्त्रं" अर्थात केवल शासन करने वाले विधि प्रतिषेध परक ग्रंथ ही शास्त्र नहीं कहलाते अपितु किसी गूढ़ तत्त्व का प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ भी शास्त्र कहलाते हैं । वेद, स्मृति, धर्मशास्त्र आदि ग्रंथ मनुष्य को सत्कर्मों  में प्रवृत्त होने और असत्कार्यों से निवृत्त होने का आदेश देते हैं । इसलिए वे शास्त्र हैं । वे शास्त्रों की तरह ही जीवन में 'डूज' एन्ड 'डोंट' सिखाते हैं । जीवन के लिए प्रेरित करते हैं.. कड़वा सच बोलते हैं..जैसे... या तो कुबूल कर मेरी कमज़ोरियों के साथ या छोड़ दे मुझे मेरी तन्हाईयों के साथ ।
उनकी ग़ज़ल का एक-एक 'वर्ड'  पूरे 'वर्ल्ड' को रिवील करता है । ऐसा लगता है जैसे जीवन के सागर मंथन से जीने के कुछ 'मंत्र' निकले हों, दनकौरी  जी का ग़ज़लकार सिंपलीसिटी, न्यूट्रेलिटी और  ऑब्जेक्टिविटी के साथ क्रिएटिविटी  रचता है । उनके इन गुणों को जानना और भी आसान हो जाता है, जब उनको व्यक्तिगत रूप से जाना जाए । उनको देखकर -पढ़कर'फॉर फ्रॉम मेडिंग क्राउड' और महान उपन्यासकार थॉमस हार्डी याद आते हैं, जो रोमांस, प्रेम, विवाह और एक तरह से दुनिया में रची बसी इनकंसिस्टेंसीज, इरेशनलिटीज,बिट्रायल्स को परत दर परत छीलते हैं .. उन्हें एक्सपोज़ करते हैं । उनके लेखन में सैटायर और  सर्काज़्म समानांतर चलते हैं, किंतु वह स्वभाव से शिक्षक होने के कारण किसी को नीचा नहीं दिखाते अपमानित नहीं करते... एक व्यंजना, जो आदरणीय करुणा शंकर जी उपाध्याय ने उधृत की है, मैं भी रेखांकित करना चाहूंगा;" नाम भी हो गया है और दौलत भी, अब तू यूँ कर कि ख़ुदा हो जा ।
उनका शायर किसी से बायस्ड  या प्रीज्यूडिस नहीं है, बल्कि जो घटनाएं- प्रकरण उनके सामने सबज्युडिस हैं.. वह उन पर भी निर्णय नहीं सुनाते बल्कि तल्ख़ टिप्पणियां ही करते हैं ।
श्री दनकौरी 'रिचुअल' से अधिक 'स्प्रिचुअल' हैं । जैसा कि उनके पुस्तक के शीर्षक और उस पर आधारित शे'र से स्पष्ट हो जाता है..." मेरी ग़ज़ल या नज़्म ,रुबाई, सब मिट्टी, तुझ तक ही जब पहुंच न पाई, सब मिट्टी ।
वे राजनीतिक विद्रूपता, विसंगतियों पर आक्रामक हैं; किंतु गांधी की तरह संयमित सहिष्णु और एक विराट सद्भाव को साथ लिए । उनकी राइटिंग में डेस्ट्रक्शन से ज्यादा क्रिएशन की डिजायर है । उनकी 48 ग़ज़लें जीवन के गहन विचारों की आग में तपी, निखरी और मुस्कुरायी हैं । कदाचित यह कबीर जैसे मस्त मलंग फकीर की प्रभात फेरी जैसी हैं ।
वाणी के व्यापार विनिमय के इस दौर में शब्द ब्रह्म की आराधना कदाचित कठिन है। आज हम न लेखन के प्रति और ना ही शब्द के प्रति प्रतिबद्ध हैं । हमारे जिन शब्दों पर दुनिया वाह-वाह करती है, क्या हम अपने अंतस से उनका निर्वाह करते हैं, यह विचारणीय है । रॉबर्ट फ्रास्ट कहते हैं," यदि लेखक की आंखों में आंसू ना हो तो पाठक की आंखों में कभी आंसू नहीं आ सकते ।" दुनिया में वही लेखन टिक पाया है, जिसने लेखक और पाठक को एकाकार किया है । एक चित्त समाधि की अवस्था प्रदान की है । एक चित्त समाधि, जो गीता गायक श्री कृष्ण और श्रोता अर्जुन के मध्य थी। और अंत में ....दीक्षित जी का यह संकलन पूरे कमिटमेंट के साथ पाठक और श्रोताओं को एक चित्त समाधि की स्थिति में ले जाता है... बशर्ते पाठक भी कमिटेड हो ।


संजय झाला
www.sanjayjhala.com

Comments

  1. वाह वाह बहुत खूब लिखा आपने।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

शरद जोशी जी की जयंती (21 मई) के अवसर पर... हास्य-व्यंग्य का पहला 'शो-मैन'

वेद-शास्त्रों में हास्य

कवि-कविता और कवि सम्मेलन का इतिहास