....अंतिम दिनकर



पहले वीर रस के बारे में
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शृंगारहास्यकरुणरौद्रवीर भयानका: ।
वीभत्सादभुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्येरसा:स्मृताः ।
रसों का यह क्रम आचार्य मम्मट ने भरत- नाट्यशास्त्र से ज्यों का त्यों उतार लिया है, और रसों का यही क्रम निर्धारित किया है । इसमें वीर रस पांचवे स्थान पर है। इन रसों के अंत में, यद्यपि इसकी गणना यहाँ नहीं की गई; किंतु निवृत्ति धर्म प्रधान, मोक्ष दायक 'शांत रस' आता है । यह ज्ञातव्य है कि महाकवि कालिदास, भामह और दंडी ने भी भरतमुनि के "अष्टौनाट्येरसा:स्मृता:" स्वीकार किया है।
रस कोई भी हो अथवा किसी भी रस की कविता हो, उसकी अपेक्षा "सद्य: परनिवृत्ति"- अलौकिक आनंद अनुभूति या रसास्वादन ही काव्य का मुख्य प्रयोजन है । कवियों को यह जानना चाहिए, विशेष रूप से वीर रस के कवियों को कि' कवि' शब्द का पहला प्रयोग देवराज इंद्र के लिए हुआ है। उन्हें असीम 'ओजस्वी युवा कवि' के रूप में वर्णित किया गया है । 'युवकविरमितौजा अजायत:'
ऋग्वेद-१-११-४
वीर रस का वर्ण 'स्वर्ण' अथवा 'गौर' कहा गया है । भानुदत्त के अनुसार पूर्णतया परिस्फुट , उत्साह अथवा संपूर्ण इंद्रियों का प्रहर्ष  या उत्फुल्लता  ही 'वीर रस' है ।
'सर्वेन्द्रियाणां प्रहर्षो वा वीर:'वीर रस का स्थायीभाव 'उत्साह'है,न् कि 'क्रोध'। भोजराज के अनुसार "प्रतिकूलेषु तैक्ष्ण्यस्य प्रबोध:क्रोध:उच्यते । कार्यारंभेषु संरम्भ:स्थेयानुत्साह इष्यते । तीक्ष्णता का प्रबोध क्रोध है, स्थिरता और उत्कट आवेश उत्साह है। साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ के अनुसार धैर्य मति, गर्व, स्मरण, तर्क, रोमांच वीर रस के संचारी भाव होते हैं ,और चार भेद होते हैं, दानवीर, धर्मवीर, युद्धवीर और दया वीर ।

महाकवि करुण जी के बारे में
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वीर रस की इस शास्त्रीयता को जानने वाले और आत्मसात करने वालों में मैं महाकवि दिनकर के बाद महाकवि बलवीर सिंह करुण का  नाम आदर से लेना चाहूंगा । वे दोनों इस रूप में इंक्रेडिबल हैं कि वे कानफ्लिक्टिंग सेंटीमेंट्स को जीने रिवील करने का आर्ट और स्किल  जानते हैं । दिनकर जी की 'उर्वशी'और 'परशुराम की प्रतीक्षा 'और करुण जी कि 'मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँ' और 'गीत-गंध बावरी' पढ़ने वाले इनकी समान विशेषताओं को सरलता से समझ सकते हैं । दोनों में गजब की एकेस्टेसी,  एन्थुजियाज्म., और ज़ील है।ये  दोनों ही महान कवि कैरेक्टर्स के  ट्रांसफॉर्मेशन की आर्ट को बखूबी जानते हैं,मानते हैं। उर्वशी की देह में प्रवेश के बिना 'उर्वशी' लिखना संभव नहीं, उसी तरह 'द्रोणाचार्य' की देह में घुसे बिना द्रोणाचार्य का सृजन  संभव नहीं है । यह कला लेखक के 'वेकअप' के साथ 'इंटरनल मेकअप' भी मांगती है...जो कि रेयर है ।रॉबर्ट फ्रॉस्ट इसे एकाकार होना कहते हैं और विनोबा भावे इसे एक चित्त समाधि होना । मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँ...ये महा काव्य नहीं....वीर रस का वेद है....पंक्ति- पंक्ति विश्व कल्याण की कामना लिए ...इसको पढ़ने के बाद आंखों में खारे जल के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रहता । इस जल से आचमन ही इसके पठन की सही दक्षिणा है ।
वे परशुराम के धनुष और उर्वशी  के नयनों के बाण संधान को समान रूप से जानते हैं । वे कुठार के क्रोध, नुकीले बाणों के बोध  के साथ नूपुर के क्वणन- क्वणन स्वन को समझने में निष्णात हैं । वीर रस में उत्साह युक्त शब्द संयम्, भाषिक मर्यादा, भाव की लयबद्धता कल्पना की स्पष्टता-शुद्धता , कथन की कुशलता, प्रस्तुतिगत प्रगल्भता और अर्थ की रमणीयता वांछनीय है । और इन सभी अर्थों में  मैं दिनकर जी और करुण जी को समान धरातल पर रखता हूँ ।
और... करुण जी को लिखते हुए देखना एकचित्तसमाधिस्थ साधु को देखने के जैसा है, शब्द उनकी इच्छा के अनुकूल एक आकृति लेकर क्रमबद्ध मन और मस्तिष्क पर उतरते हैं, और फिर काग़ज़ पर । पर सब कुछ... अनायास.... बिना अतिरिक्त प्रयास ....उत्साह के साथ उछाह के साथ । वे एक बालक की तरह 'हठी', तपस्वी की तरह 'स्थिर' और आचार्य की तरह दृष्टा हैं । अति आत्म बोध और शोध के तप से वे क्रोध में लगभग अपने पात्र द्रोणाचार्य को जीने वाले हैं। वे काव्य में 'शब्द' और 'अर्थ' के दोष से रहित और 'गुण' और 'अलंकार' सहित हैं । किसी सभा- सदन में उनका होना गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के होने जैसा है ।वे चलते फिरते एनसाइक्लोपीडिया और वीर रस का परसोनिफिकेशन हैं । अग्रज विनीत चौहान को ये गर्व है कि उसके पास एक पराक्रमी बाप है...हमें गर्व है पिताजी..हमारे पास 'आप' हैं।

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