कवि-कविता और कवि सम्मेलन का इतिहास

कवि -कविता और कवि सम्मेलन का इतिहास

वेद को 'देवों का अमर काव्य' कहा गया है--"देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति'के वैदिक वचन में देव के काव्य के रूप में वेद का ही निर्देश किया गया है और वेद के निर्माता परमात्मा के लिए वेदों मेंअनेक जगह 'कवि' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए वेद स्वयं काव्यरूप है और उसमें काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य पाया जाता है। इसलिए साहित्यशास्त्र में काव्य सौन्दर्य के आधायक जिन गुण, रीति, अलङ्कार, ध्वनि आदि तत्त्वों का विवेचन किया गया है ,वे सभी तत्त्व मूल रूप में वेद में पाये जाते हैं। वेदों में रचनाके माधुर्य, ओज और प्रसादादि गुणों के उदाहरण अनेक स्थानों पर पाये जाते हैं। गुणों के आधार पर ही रीतियों का निर्धारण होता है। इसलिए रीतियों के उदाहरण भी वेद में खोजे जा सकते हैं। उपमा और रूपक आदि अलङ्कारों की तो वेदों में भरमार है।
कवि शब्द का प्रथम प्रयोग इंद्र के लिए हुआ है और उसे असीम ओजस्वी युवा कवि के रूप में वर्णित किया गया है।
'युवा कविरमितौजा अजायत' । ऋग्वेद १-११-४
कवि की तुलना प्रजापति ब्रह्मा से की गई और कहा गया-
अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः |
यथा वै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते    ||
इस अपार  काव्य संसार में कवि भी विश्व के सृष्टा ब्रह्म के समान आचरण करता है |  जिस प्रकार ब्रह्म इस विश्व में अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करता रहता है, वैसे ही कवि भी अपनी इच्छानुसार विश्व का चित्रण करता है। 
इशोपनिषद के आठवें मंत्र में कहा गया-
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:
वेदों में कवि एक पदवी है ,जो सर्वज्ञ अर्थात सर्वज्ञान रखने वाले ज्ञानी को प्राप्त होती है । वेदों में ऋषियों की पदवी कवि है ।
वैदिक काल में भी आख्यान एवं गाथाएं लिखी जाती थीं । इन आख्यानों- कथाओं- गाथाओं में काव्य की ही तरह मन के संवेग प्रवृत्तियां स्थायी भाव और नवरस विद्यमान होते हैं ।
संस्कृत कवि, नाटककार ,आलोचक राजशेखर महाराष्ट्र वासी थे। राजशेखर का समय( 880 -920 ईस्वी) के लगभग मान्य है। राजशेखर द्वारा विरचित 'काव्यमीमांसा' कवि एवं काव्य से संबंधित समस्त विषयों का एक आधिकारिक अभिलेख है । इसका नाम ही 'कवि रहस्य' है, जो वस्तुतः कवि के रहस्य को प्रकट करता है । इसमें कवियों की श्रेणी निर्धारण, बैठने का क्रम, वेशभूषा आदि का  वर्णन राजशेखर द्वारा किया गया है। राजशेखर के अनुसार सूक्ष्मता पूर्वक प्रकृति का निरीक्षण न करना ही कवि का महान दोष है । इसमें कवि गोष्ठियों और काव्य प्रस्तुतियों का वृहद विवरण मिलता है । राजशेखर के अतिरिक्त क्षेमेन्द्र सिंह, अमर चंद्र, देवेश्वर आदि ने कवि -शिक्षा पर महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखें हैं। 
12 वीं शताब्दी के महाकवि मंक  विरचित महाकाव्य  श्रीकंठ चरितम के अंतिम सर्ग में कश्मीर की एक कवि गोष्ठी का वर्णन मिलता है। उसमें 25 से 30 कवि सम्मिलित हुए थे और बारी-बारी अपना काव्य पाठ प्रस्तुत किया था ।
बल्लाल सेन कृत भोज प्रबंध संस्कृत लोक साहित्य का एक श्रेष्ठतम ग्रंथ है।  इसमें महाराज धारेश्वर भोज की राज्यसभा से जुड़ी रोचक कथाएं 16 वीं शताब्दी के इस ग्रंथ की रचना गद्य- पद्य  कथोपकथन के रूप में है। इसमें वर्णन है कि किस प्रकार पंडितों की मंडली तथा आगंतुक कवि गण  विनोद की दृष्टि से काव्य पाठ करते थे और दानवीर महाराज भोज कवियों का सम्मान करते थे । इसका एक आदर्श  इस ग्रंथ में मिलता है। यह ग्रंथ अलंकार और काव्यगत चमत्कार से युक्त है ।
नाट्य और काव्य में समानता 
देवासुर संग्राम में लड़ते-लड़ते देवता और असुर बुरी तरह थक गए थे ।उनके प्रतिनिधि प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और अपनी स्थिति का वर्णन किया, साथ ही उनसे प्रार्थना की; कि कोई ऐसी विधि खोजी जाए जिससे जीवन की उदासी दूर भागे और मन में प्रसन्नता का संचार हो तो ब्रह्मा जी ने सोच-समझकर नाट्य वेद का आविष्कार किया । इसके साथ ही कविता का भी यह उद्देश्य है कि वह थके मांदे मन में ऊर्जा का संचार करें और उसे उसमें प्रसन्नता का संचरण करें ।
नाटक और कविता भिन्न-भिन्न रुचि के लोगों के लिए संपूर्ण रूप से समर्थन करने वाली होती है । नाटक के लिए कालिदास ने कहा "नाट्यम भिन्न  रुचेर्जनस्य बुधाप्येकम समाधनं " नाटक और काव्य सामान्य जन का तो मनोरंजन करता ही है पर समझदार विद्वानों को संतुष्ट ना करें तब तक उसकी कलात्मकता से प्रयोग करने वाले को संतोष नहीं होता ।  कालिदास ने नाटक को "कांतम क्रतुं चाक्षुषम्"  कहा । नाटक यदि आंखों का सुंदर यज्ञ है, तो काव्य कानों का सुंदर यज्ञ है । 
दोनों में धर्म ,अर्थ, काम मोक्ष के अतिरिक्त क्रीड़ा -कौतुक एवं सभी रस अपनी पूर्णता के साथ विद्यमान हैं । साहित्य दर्पण में विश्वनाथ कविराज लिखते हैं, "चतुर्वर्गफलप्राप्ति: सुखादल्पधियामपि काव्यादेव"  अर्थात काव्य से भी  चतुर्वर्ग के फल की प्राप्ति होती है।
आदिकाल से दोनों श्रुति और स्मृति पर आधारित रहे ।
एक कवि एवं अभिनेता को कुशल ,वाक्पटु, पंडित और थकान को जीतने वाला होना चाहिए ।
दोनों का उद्देश्य जन रंजन के साथ जनकल्याण है ।
दोनों में एक महत्वपूर्ण अंतर है-
'त्रि वर्गसाधनं नाट्यम्' इति च । विष्णुपुराणेऽपि --
'काव्यालापाश्च ये केचिद् गीतकान्यखिलानि  च 
शब्दमूर्तिधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः ॥'

नाट्य अर्थात् दृश्य काव्य, त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ और काम ) का साधन ( हेतु) है ।- अग्निपुराण
विष्णुपुराण में कहा  है— काव्य और समस्त गीत, ये सब शब्दरूप मूर्तिको धारण करनेवाले महात्मा विष्णु‌ के अंश हैं। इस कारणसे ( चतुर्वर्गका साधन होनेसे ) उस काव्य के स्वरूपका निरूपण किया जाता है ।

काव्य के प्रयोजन -ग्रहनीयता और महत्ता

'नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा ,कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा ॥'
काव्य की ग्रहनीयता को अग्नि पुराण में भी कहा गया है,' लोक में मनुष्य होना दुर्लभ है, मनुष्य होने पर भी विद्या अत्यंत दुर्लभ है , विद्या के होने पर भी कवि होना दुर्लभ है और कवि होने पर शक्ति अर्थात प्रतिभा अत्यंत दुर्लभ है । यहां प्रतिभा से आशय निश्चित रूप से काव्य के प्रेषण, संप्रेषण, रोचकता, और उसकी प्रभावोत्पादकता तथा गुण -अवगुण की अभिव्यक्ति से ही है ।
चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादसधियामपि । काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ॥ २
जिस कारणसे अल्प बुद्धिवालोंको भी काव्यसे ही अनायास चतुवर्ग ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) रूप फलकी प्राप्ति होती है उस कारणसे उसके स्वरूप - (लक्षण) का निरूपण किया जाता है ॥ २ ॥
काव्य से चतुर्वर्ग फल की प्राप्ति राम आदि के समान आचरण करना चाहिए, रावण आदिके समान आचरण नहीं करना चाहिए । इस तरह कर्तव्य विषय में प्रवृत्ति और अकर्तव्य विषयमें निवृत्तिके उपदेश के द्वारा प्रख्यात ही है। 
कविता का वैश्विक प्रसार-प्रसारण 
1983 में नव वर्ष के कार्यक्रम में सर्वप्रथम सुरेंद्र शर्मा जी की हास्य की लोकप्रिय कविता कालू का प्रसारण हुआ । 1984 में दूरदर्शन द्वारा कुबेर दत्त जी के निर्देशन में प्रथम आधिकारिक कवि सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें 22 कवि सम्मिलित हुए । इसके संचालक अशोक चक्रधर और अध्यक्षता  श्री गोपाल प्रसाद व्यास जी ने की थी । 1988-89  में भारत का पहला लाफ्टर- शो दूरदर्शन ने प्रारंभ किया । जिसका नाम था 'कहकहे'। जिसमें कवि और स्टैंड अप कॉमेडियन दोनों को सम्मिलित किया गया । इसके प्रोड्यूसर शरद दत्त थे और इसमें प्रश्नों के उत्तर श्री शरद जोशी जी दिया करते थे । यह शरद जी  का अंतिम कार्यक्रम था । 1995 -96 में सीपीसी दूरदर्शन केंद्र द्वारा 'फुलझड़ी एक्सप्रेस' कार्यक्रम प्रसारित हुआ। जिसके 12 एपिसोड प्रसारित किए गए ।
2004 में सब टीवी पर कार्यक्रम 'वाह-वाह' का प्रसारण हुआ, जिसके 156 एपिसोड प्रसारित हुए। 300 से अधिक कवियों ने इसमें भाग लिया और जिसका संचालन श्री अशोक चक्रधर जी ने सफलतापूर्वक किया ।
कवि सम्मेलनों के वर्तमान और उसके स्वरूप को परिवर्तित -परिवर्धित और परिष्कृत करने का श्रेय जाता है ,प्रख्यात कवि, अभिनेता और मोटिवेशनल स्पीकर श्री शैलेश लोढ़ा को । जिसने  विभिन्न टीवी चैनल  शोज के माध्यम से कविता को इंडिविजुअल से यूनिवर्सल, ग्लोबल और नोबल बना दिया। कवि और कविता को मार्केबल- रिमार्केबल, प्रेजेंटेबल बनाया और कवियों को कुर्ते- पाजामे से इंद्रधनुषी रंगत वाले लिबासों और मेकअप से फैशनेबल । कविता पगडंडियों से राजमार्गों पर, कस्बों से कॉरपोरेट घरानों तक आईं ,कवि बसों से एयरबसों तक और रोडवेज से एयरवेज तक। कवि -कविता और कवि सम्मेलनों की एक नई परिभाषा गढ़ी गई । मेरी पुष्ट जानकारी के अनुसार श्री शैलेश लोढ़ा ने विभिन्न टीवी शोज के 5000 से अधिक एपिसोड किए ।इनमें 1500 एपिसोड कविता के विभिन्न शोज के हैं। इनमें हजारों नए कवियों को अवसर मिला, सैकड़ों कवि उभरे और दर्जनों चमके ।

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